मंगलवार, 24 फ़रवरी 2015

फरवरी इतनी गरम हो गयी है या सरकार की आंखों का पानी सूख गया है


पिछले दो दिन से फेसबुक पर किसान और उसकी जमीन पर उसके हक की बातें की जा रही हैं. यह अच्छा अवसर है वरना फेसबुक पर किसान और जमीन की बातें कहां होती थीं. अभी भी माहौल बदलने लगा है. कोई मदर टेरेसा विवाद की ओर बहक रहा है, कोई लप्रेक में उलझा है तो कोई क्रिस गेल की जै-जैकार कर रहा है. इस बीच कुछ लोगों ने बड़ी रोचक टिप्पणियां की हैं. ये टिप्पणियां आपके लिए छांट कर लाया हूं. मौका निकाल कर पढ़ें, इस अबूझ मसले को समझने में थोड़ी मदद मिलेगी....
Rajneesh Dhakray
उनके पैरों में प्लास्टिक की चप्पलें हैं और कई तो नंगे पैर भी हैं. पैरों में बिवाईयों की नालियाँ बनी हुई हैं ऐसे में सीधे से खड़ा न हुआ जाये और वे सैकड़ों किलोमीटर चल रहे हैं रोज 12-14 किलोमीटर. एक वक़्त का खाना और रात गुजारने के लिए सिर के ऊपर खुला आसमान तो नीचे कंकरीली काली सड़क. फरबरी इतनी भी गरम नहीं होती कि रात को सिर्फ पतले कम्बल या चादर से ठण्ड बचाई जा सके. वे हज़ारों की संख्या में पंक्तिबद्ध होकर चल रहे हैं. दिल्ली उनसे उनकी जीविका छीनने की तैयारी में है और वे सत्याग्रह कर रहे हैं. स्वतंत्र (?) भारत में खुद के चुने हुए प्रतिनिधियों से गिड़गिड़ा रहे हैं कि उनकी ज़मीनें उनसे न छीनी जाएं, उनके जंगल जो हज़ारों सालों से उनका घर है उससे उनको बेदखल न किया जाए.
क्या एक नागरिक को उसके देश में एक टुकड़ा ज़मींन का हक़ नहीं होना चाहिए, जिस मिट्टी हवा पानी से उसका शरीर बना हुआ है क्या वही उसे उस देश का नागरिक बना देता है. इस सत्याग्रहियों की टोली में आदमी, औरत बच्चे सब हैं हर उम्र के हैं. बूढी अम्मा, अधेड़ चाची, युवा भाभी और युवतियाँ, बच्चियाँ. क्यों चल पड़े हैं ये लोग अपने घरों से, ये न पढ़े लिखे हैं और न ही इन्हें कानून की समझ है ये सरकार की विकास नीति भी नहीं समझते फिर क्यों ऐसे असह्यः कष्ट झेलते हुये दिन रात एक किये हुए हैं. वजह है इसके पीछे और इस वजह की समझ किसी किताब को पढ़कर या सेमिनार अटेंड करके नहीं आई है, उन्होंने ज़िन्दगी की किताब पढ़ी है, जीने की ज़द्दोज़हद का सेमिनार अटेंड किया है. एक रोटी, एक गमछा, एक पैरासिटामोल को तरसती ज़िन्दगियों को ख़त्म होते देखा है और यही उनकी पाठशाला है.
एक किसान अपनी जमीन से सिर्फ अपना पेट नहीं भरता बल्कि दस अन्य भूमिहीनों की जीविका भी उसी ज़मीन पर निर्भर होती है. अधिग्रहीत भूमि पर भूस्वामी को उचित मुआवजा (?)- जिसमें भूमि के मूल्य का दोगुना या तीनगुना मूल्य और एक परिजन को नौकरी देना शामिल हो सकता है- देकर क्या उस भूमि के वास्तविक मूल्य की भरपाई हो सकती है? फिर उन भूमिहीनों का क्या होगा जो परोक्ष रूप से उस जमींन से रोजगार पाते हैं और अपना एवं अपने परिवार का पेट भरते हैं, उन्हें क्या मुआवज़ा मिला कौन सी नौकरी मिली? जितने उद्योग लगते हैं इनमें किन्हें नौकरी मिलती है और किसका विकास होता है, इन प्लांट्स में काम करने वाला एक अदना सा चपरासी उन लोगों से जो कभी उस भूखंड के मालिक हुआ करते थे, कैसा हिकारत भरा व्यवहार करते हैं!
एक इंसान को 10-15-20 हज़ार की नौकरी के एवज़ में 10 लोगों की 5-5 हज़ार रूपये की आमदनी नहीं छीनी जा रही. ये कैसा विकास है? और एक इंसान को रोजगार देकर बाकी के 9 लोगों को भुखमरी की हालत में नहीं छोड़ा जा रहा? क्या फरबरी इतनी गरम हो गई जो इन पूंजीपतियों की सरकारों की आँख का पानी ही सूख गया? नहीं जनाब फरबरी इतनी भी गरम नहीं है बस एक रात खुले आसमान के नीचे बिताइये.
Rakesh Kumar Singh
अपने डेढवर्षीय संक्षिप्‍त कॉर्पोरेट कम्‍युनिकेशन काल में भूमिअधिग्रहण में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार का साक्षात भागीदार रहा हूं. दो थर्मल पावर प्रोजेक्‍ट्स के लिए लैंड एक्वायर होते देखा है. जनता की आवाज़ दबाने और उसके विरोध को समर्थन में तब्‍दील करने के जालिमाना नुस्‍खों के बारे में सुनेंगे तो होश फाक्‍ता हो जाएंगे आपके. पर्यावरणा के लिए होने वाली जनसुनवाई को 'सफल' बना लेने के बाद, कंपनी के कारिंदे बैठकर समर्थन का पोस्‍टकार्ड लिखते हैं, जो कलेक्‍टर की रिपोर्ट के साथ नत्‍थी होकर राजधानी में श्रमश्रक्ति भवन स्थित पर्यावरण मंत्रालय आते हैं. मंजूरी सुनिश्चित कराने. रात के जिस पहर में ये तैयारियां चल रही होती हैं, प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सचिव के कमरे में हड्डी, बोतल, गड्डी समेत सारा इंतजाम टंच रहता है. एक कलेक्‍टर साहब को देखा, वे तबादले का फरमान हाथ में थाम लेने के बाद भी पर्यावरण जनसुनवाई की फाइल पर अपना दस्‍तखत दाग कर ही नयी पदास्‍थापना की ओर बढे.
ज़मीन ग़रीब किसानों की थी. आदिवासियों की भी थी. मुट्ठी भर अमीरों की भी थी. दलाल अमीरों में से चुने-बनाए गए थे. जिन्‍होंने, किसानों को जो जिस भाषा में समझे उस भाषा में समझाकर ज्‍यादातर ज़मीन कंपनी के हक में करवाए. जो रह गए उसको प्रशासन के साथ मिलकर कंपनी ने संभाला. जो न संभले उन्‍हें टेक्‍ल करने में पुलिस भी शामिल हो गई. उसके बाद भी जो बचे रह गए, वे रह गए. लड़ रहे हैं हक और आत्‍मसम्‍मान की लड़ाई. जिंदगी दूभर कर दी है संत्‍ता और कॉर्पोरेट ने मिलकर उनकी. अमूमन हर आने वाले घटनाक्रम की जानकारी शासन को होती है.
Arun Chandra Roy
दिल्ली के चारो ओर ध्यान से देखिये. किसान ख़त्म हो गए हैं. वे बिल्डर बन गए हैं. वे बिल्डिंग मेटेरियल के सप्लायर बन गए हैं. माल में बड़े शो रूम चला रहे हैं. उनके बच्चे एसयूवी में घूम रहे हैं. एनसीआर के तमाम डिस्को और पब उन्ही से गुलज़ार हैं. मुआवज़े का पैसा इसी पीढी में ख़त्म होने वाला है. हजारो हज़ार हेक्टेयर पर जहाँ गेहूं सरसों लहराते थे वहां पीलर उठ गए हैं. यह विकास है. और यह तमाम मेट्रो से लेकर बिहार झारखण्ड छतीसगढ़ ओडिशा में किसानो आदिवासियों से स्वावलंबन छीन रहा है. और रही सही कसर बीज खाद के दाम और सिंचाई की कमी कर रही है.
ये भी समझाया जा रहा है कि किसानी एक निकृष्ट पेश है. सीमान्त किसान की लगत पूरी नहीं हो रही है. ताकि कार्पोरेट फार्मिंग के लिए जमीन तैयार हो सके. दो दशको से बेरोकटोक ऐसा हो रहा है. सभी सरकारे शामिल रही हैं इसमें. उद्देश्य है कृषि पर निर्भरता और स्वावलंबन को ख़त्म करना. ये केवल धरने से यह नहीं होगा. बड़े आन्दोलन की जरुरत है इसके लिए. यह भूमि अधिग्रहण अध्यादेश से कही अधिक गंभीर समस्या है.
Anupam
कल सुबह मैं आ रहा हूँ. आपके घर. साथ में चार पुलिस वाले को भी लाऊंगा. आपका घर और ज़मीन मुझे चाहिए. चिंता मत करिए, मुफ्त में नहीं लूँगा. उसका मुआवाजा भी दूंगा लेकिन अपनी शर्त पर. आप मुझे नहीं बता सकते कि आपके घर की क्या कीमत है. आपके घर की कीमत तो मैंने खुद तय कर रखी है. मुझे दरअसल एक स्कूल बनाना है, देश के लिए. देश के विकास के लिए. मैं उस स्कूल से पैसे भी नहीं बनाऊंगा. सिर्फ समाज-सेवा करूँगा. बस आपका घर दो दिनों में खाली हो जाना चाहिए. मुआवजा मैं आपको एक हफ्ते में दे दूंगा. और बाद में अगर आपको स्कूल न दिखे तो वापिस घर मांगने मत आ जाना. हो सकता है मैं स्कूल न भी बना पाऊं, इसमें मेरी क्या गलती. और तो और, आप मेरे खिलाफ किसी अदालत में भी नहीं जा सकते.
जी हाँ, ठीक समझा आपने. मैं भूमि-अधिग्रहण वाले मुद्दे की तरफ ही संकेत कर रहा था. कुछ लोग हैं जो "विकास" और "प्रगति" के नाम पर लाये गए मोदी जी के इस अध्यादेश का समर्थन करते हैं. इतना ही नहीं, वो लोग मेरे जैसे लोगों को तो विकास-विरोधी भी मानते हैं. उन सभी दोस्तों से मेरा सवाल है कि कल सुबह कहीं मैं आपका ही घर कब्ज़ा करने आ गया तो? ..क्या करेंगे आप, क्या जवाब देंगे? सोच समझ के जवाब दीजियेगा.. कहीं आप भी विकास-विरोधी ना बन जाएँ.

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